कब रोक लगेगी पुलिस की बर्बरतापूर्ण हरकतों पर

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देश के विभिन्न प्रांतों से समय-समय पर पुलिस की बर्बरता की कहानियां सामने आती रहती है। चाहे राजस्थान हो या पंजाब, मध्य प्रदेश हो यह महाराष्ट्र, कमोबेश बर्बरता के मामले में पुलिस का रवैया ऐसा रहता है कि आम आदमी की रूह तक कांपने लग जाती है। हाल ही में मध्य प्रदेश के गुना में पुलिस की बर्बरता का तो और भी लोमहर्षक परिणाम सामने आया कि त्रस्त दंपति ने कीटनाशक तक पी लिया। इस प्रकार की घटना से ऐसा लगता है कि इस देश में लोकतंत्र नहीं तानाशाही जैसा शासन है ? आखिर इस प्रकार की बर्बरता कर पुलिस लोकतंत्र की कब्र खोदने का काम करती नजर आती रहेगी ?
पुलिस की ज्यादतियों की समस्या अब गंभीर होती नजर आ रही है। हालांकि जब भी कोई वारदात या घटना होती है तो मीडिया में खूब चर्चा होती है, निंदा आलोचना तो होती ही है, बल्कि विरोध प्रदर्शन के दौर भी आरम्भ हो जाते हैं। राजनेताओं, प्रबुद्ध जनों आदि के बयानात आते हैं, मगर आखिर में लगभग परिणाम ढाक के तीन पात जैसे नजर आते हैं। कुछ समय बाद लोग लगभग सब कुछ भूल जाते हैं। जब घटना होती है तो एक बार अधिकारियों के तबादले कर दिए जाते हैं, उन्हें निलंबित कर दिया जाता है। कुछेक मामलों में बर्खास्तगी तक भी होती है, मगर इस प्रकार की कार्यवाही से या बर्खास्त कर देने से इस गंभीर समस्या से मुक्ति मिल सकती है ? ऐसा नहीं लगता है और ऐसा सोचना बेमानी प्रतीत होता है।
देश के कोई भी प्रांत हो, ऐसा लगता है कि पुलिस को या तो अभय दान मिला हुआ है या फिर राजनैतिक दलों और नेताओं ने उन्हें अभयदान देकर स्वार्थपूर्ण कृत्यों के लिए छूट दे रखी है। कानून के रखवाले कहलाने वाले पुलिस वाले जब कानून को ताक पर हिंसा और पैशाचिक जैसी प्रवृत्ति पर उतर आते हैं, तब ऐसा लगता है कि पुलिस के पक्ष के कथन और वक्तव्य पुलिस के अमानुषिक जैसे कृत्यों पर पर्दा डाल रहे हैं। कथित कर्तव्य पालन और आत्मरक्षा के नाम पर की गई पुलिस की ऐसी कारगुजारियों का समर्थन उनकी मनमानियों को बढ़ावा देने जैसा प्रतीत होता है। सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका भी यथासमय ऐसे मामलों में कोई सख्त कदम नहीं उठा पाती।
मध्य प्रदेश के घटना का तो वीडियो भी वायरल हो चुका है, जिसमें पुलिस ने किसान की पत्नी तक को नहीं बख्शा था। हो सकता है वक्त व हालात से परेशान किसान दंपति ने पुलिस का प्रतिरोध करने का प्रयास किया होगा, मगर ऐसा लगता है कि उस अत्याचार के खिलाफ बोलना भी उनके लिए महंगा पड़ गया ? पुलिस के खिलाफ बोलने को आज अमूमन राजनीति माना जाता है, जबकि वह राजनीति नहीं है। व्यक्ति अपने अधिकारों की रक्षा के लिए बोलने का और प्रतिरोध, प्रतिकार का प्रयास करता है एवं लोकतंत्र में कर सकता है।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि राजनैतिक दल चाहे सत्ता में हो अथवा विपक्ष में, उन सबको इस मामले में एकजुट होकर पुलिस की निरंकुशता और बर्बरता को रोके जाने के लिए सख्त निर्णय करना चाहिए। आज कोरोना की रोकथाम के लिए कोरोना की वैक्सीन के लिए हर स्तर पर और युद्ध स्तर पर प्रयास हो रहे हैं, मगर हिंदुस्तान में आवश्यकता यह प्रतीत होती है कि पुलिस की निरंकुशता को रोकने जैसी वैक्सीन भी यहां खोजी जानी चाहिए। जो इस बर्बर संक्रमण से मरणशील से लोकतंत्र को बचा सके।
यहां यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विधायिका और न्यायपालिका अपनी अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाती नजर नहीं आ रही है। जब विधायिका और न्यायपालिका की ऐसी स्थिति बन जाती है तो निश्चित ही पुलिस विभाग हो या प्रशासन, निरंकुश हो ही जाता है फिर उसके दुष्परिणाम जनता को भुगतने पड़ते हैं।
इस प्रकार के हालातों में सर्वोपरि आवश्यकता है कि पुलिस प्रशासन की व्यवस्थाओं को सुचारू और संवेदनशील बनाने के लिए उच्च स्तर पर समन्वित प्रयास किए जाए। इसके लिए विधायिका और न्यायपालिका को भी जिम्मेदार बनाना चाहिए, तभी हालातों में सुधार संभव है, अन्यथा इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति रोक पाना असंभव सा प्रतीत हो रहा है।