एकता और अखंडता के सूत्रधार श्यामाप्रसाद मुखर्जी

बाल मुकुन्द ओझा

एक देश में दो विधान दो प्रधान नहीं चलेंगे का नारा देने वाले भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज जयंती है। महान देशभक्त डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। एक महान् शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात श्री मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने। सन 1924 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में वकालत के लिए पंजीकरण कराया। 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की।
डॉ मुखर्जी के राजनैतिक जीवन की शुरुआत सन 1929 में हुई जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर बंगाल विधान परिषद् में प्रवेश किया परन्तु जब कांग्रेस ने विधान परिषद् के बहिस्कार का निर्णय लिया तब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके पश्चात उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और चुने गए। सन 1941-42 में वह बंगाल राज्य के वित्त मंत्री रहे। सन 1937 से 1941 के बीच जब कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग की साझा सरकार थी तब वो विपक्ष के नेता थे और जब फजलुल हक के नेतृत्व में एक प्रगतिशील सरकार बनी तब उन्होंने वित्त मंत्री के तौर पर कार्य किया पर 1 साल बाद ही इस्तीफा दे दिया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात 6 अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। सन 1950 में नेहरु-लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने एक नए राजनैतिक दल की स्थापना की जो उस समय सबसे बडा विरोधी दल था। इस प्रकार अक्टूबर, 1951 में ‘भारतीय जनसंघ’ का उद्भव हुआ। सन 1952 के चुनाव में भारतीय जन संघ ने कुल तीन सीटें जीती, जिसमे एक उनकी खुद की सीट शामिल थी।
यहाँ हमें डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में जानना जरुरी है की आखिर वे चाहते क्या थे। आज की पीढ़ी के लिए डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम अनजाना हो सकता है मगर कश्मीर के लिए किया गया उनका बलिदान इतिहास में अमर है। डॉ मुखर्जी भारत के अकेले ऐसे नेता थे जिन्हें एक देश दो संविधान मंजूर नहीं था। उनके अप्रतिम संघर्ष के कारण ही आज कश्मीर भारत का भाग है। डॉ. मुखर्जी ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राणों की आहूति दी। समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के साथ ही अखंड कश्मीर के खातिर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान सदैव हमारी स्मृतियों में रहेगा। डॉ. मुखर्जी धर्म के आधार पर विभाजन के कट्टर विरोधी थे।
श्री मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरू गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और वे इसके पहले अध्यक्ष बने। 1929 में बंगाली लेजिस्लेटिव कांउसिल में कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर अपना राजनीतिक करियर शुरू करने वाले जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को हुआ। 23 जून उनका समृति दिवस है। इस दिन उनकी जम्मू कश्मीर जेल में उनकी मृत्यु हुई थी। उन्होंने एक राष्ट्र दो विधान दो संविधान का विरोध करते हुए बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश किया। वहां पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। डा. मुखर्जी ने 40 दिन तक जेल जीवन की यातनायें सहन कीं। वहीं वे अस्वस्थ हो गयेे। 22 जून को प्रात 4 बजे उनको दिल का दौरा पड़ा। जनसंघ के उनके साथियों का मानना है उन्हें समय पर उचित चिकित्सा नहीं दी गयीे परिणामस्वरूप अगले ही दिन 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में डा. मुखर्जी का देहान्त हो गया। राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान किया।
डॉ मुखर्जी आज हमारे बीच में नहीं है मगर भाजपा के रूप में उनकी विचारधारा को लोगों ने स्वीकारा है। शिक्षाविद और प्रखर देशभक्त के रूप में लोग आज भी उन्हें श्रद्धा से याद करते है।