नेता आएंगे औऱ जाएंगे सरकार बनेगी औऱ गिरेगी लेकिन इंतजार तो उस दिन का हैं, जब उत्तर बिहार की तस्वीर बदलेगी हजा़रो ऐसे मुद्दे हैं जो दर्द बनकर सीने मे नश्तर की तरह चुभती हैं। लेकिन चलिये आइये बात करे सिर्फ़ सैलाब यानी *बाढ़* की,हर साल लाखो की क्षति होती हैं, कई जाने जाती हैं काफ़ी तबाही वो बर्बादी होती हैं देश के सबसे प्रमुख बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में बिहार का नाम लिया जाता है। उत्तर बिहार से बाढ़ का नाता पुराना है। उस इलाके की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे बाढ़ से बचाया नहीं जा सकता। हिमालय से निकलने वाली कई नदियाँ नेपाल से होते हुए बिहार के इस इलाके में उतरती हैं। ताजा जल का यह स्रोत वरदान भी हो सकता है, लेकिन बरसात में ये नदियाँ परेशानी का सबब भी बनती रही हैं। कोशी एक ऐसी नदी है, जो अपनी चंचल धारा की वजह से कुछ ज्यादा ही कहर ढाती रही है। जानकार कहते हैं कि बाढ़ एक कुदरती परिघटना है, जिसे रोका नहीं जा सकता। मनुष्य के हित में यह है कि वह बाढ़ के मुताबिक जीना सीख ले। लेकिन जब तकनीक से प्रकृति को जीत लेने का भरोसा इंसान में कुछ ज्यादा ही भर गया तो नदियों को नाथ कर बाढ़ रोकने के तरीके अपनाए गए। बहरहाल, पिछले पाँच-छह दशकों के अनुभवों ने यह भरोसा तोड़ दिया है। बाँध और तटबंधों के जरिए बाढ़ रोकने की उम्मीद निराधार साबित हो गई है। उत्तर बिहार की करीब 76 फीसदी आबादी तकरीबन हर साल बाढ़ का दंश झेलती है। देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में से 16.5 फीसदी बिहार में है और देश की कुल बाढ़-प्रभावित आबादी में से 22.1 फीसदी बिहारी है। बिहार के कुल 94,163 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से करीब 68,800 वर्ग किलोमीटर यानी कि 73.06 फीसदी क्षेत्र बाढ़ से पीड़ित है। एक मायने में बिहार में बाढ़ सलाना त्रासदी है, जो अनिवार्य रूप से आती ही है। इसके भौगोलिक कारण हैं। बिहार के उत्तर में नेपाल का पहाड़ी क्षेत्र है, जहाँ वर्षा होने पर पानी नारायणी, बागमती और कोसी जैसी नदियों में जाता है। ये नदियाँ बिहार से होकर गुजरती हैं। नेपाल की बाढ़ भारत में भी बाढ़ का कारण बनती है। यह बाढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में होती है। सन 2008, 201 1, 2013, 2015, 2017 और 2019 वे वर्ष हैं, जब नेपाल और भारत दोनों देशों में भीषण बाढ़ दर्ज की गई है। कोसी, नारायणी, कर्णाली, राप्ती, महाकाली वे नदियाँ हैं जो नेपाल के बाद भारत में बहती हैं। जब नेपाल के ऊपरी हिस्से में भारी वर्षा होती है तो तराई के मैदानी भागों और निचले भू-भाग में बाढ़ की आखिर बिहार की पूर्व सरकारों और राजनीतिक दलों ने पहले भी कोई सबक नहीं सीखा था। इसीलिये बिहार गरीबी और दुर्दशा का पर्याय बना हुआ है। इसके पीछे प्राकृतिक आपदाओं, खासकर बाढ़ की बड़ी भूमिका रही है। कुछ अनुमानों के मुताबिक राज्य की एक तिहाई आबादी राज्य के बाहर जाकर रोजी-रोटी कमाती हैं मजबूरी में होने वाले इस पलायन की पीड़ा को समझने की कभी कोशिश नहीं की गई। अपनी जमीन से उखड़ कर जाना, अपने प्रिय लोगों से बिछोह, अपनी संस्कृति और माहौल से कट कर दूसरी जगह जाकर जीने की विवशता-बिहार के लाखों लोगों की कहानी हैं। आखिर इसके लिये कौन जिम्मेदार है? क्या राजनीतिक दल इस बात से इनकार कर सकते हैं कि बिहार में बाढ़ से पैदा हुई समस्याएं उनके आपराधिक कुशासन और कुप्रबंधक का परिणाम है?
इस मुद्दे और प्राकृतिक आपदा से जुड़े इस पहलू पर गम्भीरता से विचार-विमर्श की जरूरत है। बिहार में दशकों से सक्रिय रहे सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता इस तरह सरकारों का ध्यान खींचने की कोशिश रहते रहे हैं, लेकिन सत्ताधारी और विपक्षी दलों के लिये यह सवाल आरोप-प्रत्यारोप का एक विषय होने से ज्यादा कुछ नहीं रहा है। सत्ता में चाहे कोई रहे, इससे हालात नहीं बदलते। कोशी की बाढ़ के बाद जब ये कार्यकर्ता पटना में बाढ़ और भूख पर संवाद के लिये इकट्ठे हुए तो बिहार की विकट स्थिति कुछ ज्यादा साफ हुई। उत्तर बिहार में भूख की स्थिति बाढ़ और दक्षिण बिहार में सूखे से जुड़ी हुई है लेकिन इस सवाल पर बिहार में सभी चुप हैं। अगर पिछले पाँच साल में विधानसभा में हुई चर्चाओं पर गौर किया जाए तो यह सामने आता है कि भुखमरी के सवाल पर न तो कोई चर्चा हुई है, और ना ही कोई सवाल उठाया गया है राजनीति, खासकर चुनावी राजनीति में भुखमरी कोई मुद्दा नहीं है।स्थिति बनती है। सबसे पहले तो होना ये चहिए की कोइ ऐसा हल ढूंढ़ कर निकाला जाये जिससे कुछ राहत मिले, यहाँ के नेताओ को चाहिए के हर वर्ष बाढ़ से तबाह हो रहे गाँवों के लिए कोइ ऐसा पेकेज फंड रिलीज करे जिससे आम इंसानो पे आर्थिक बोझ न पड़े
लेकिन अफ़सोस हमारे रहनुमाओ की रहनुमाई मे इतनी कसक कहाँ, कहा जाता हैं उम्मीद कभी नही छोड़ना चहिए बस इसी विश्वास पर नजरें टिकी हैं के कभी तो कोइ ऐसा होनहार आएगा जो यहाँ की समस्स्यायौ को समझेगा औऱ यक़ीनन हमें परेशानियों से निजात दिलायेगा।