कार्यस्थल पर उत्पीड़न से शर्मसार होती मानवता

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
हम चाहे अपने आप को कितने ही अत्याधुनिक,संवेदनशील और मानवतावादी माने पर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं वह अत्यंत दुर्भायजनक होने के साथ ही मानवता के लिए शर्मनाक भी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी री हालिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के देशों में हर पांच में से एक नौकरीपेशा किसी ना किसी रुप से कार्यस्थल पर उत्पीडन का शिकार हो रहा है। मजे की बात यह है कि इसमें भी अपनेआप को सबसे अधिक सभ्य और अत्याधुनिक मानने वाला अमेरिका दुनिया के देशों मेें अव्वल है। दूसरी मजे की बात यह भी है कि उत्पीडित नौकरीपेशा में कोई अधिक लेंगिक भेदभाव भी नहीं है। इसमें महिला और पुरुष दोनों शामिल है। 2021 के आंकड़ों के आधार पर जारी रिपोर्ट में 4 करोड़ 30 लाख लोग उत्पीडन के शिकार पाये गये हैं। यह नौकरीपेशा लोगोें के प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 22 फीसदी से कुछ अधिक ही होते हैं। नौकरीपेशा लोगों के उत्पीडन में शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा शामिल है। कार्यस्थल पर उत्पीडन के मामलों में से नौकरीपेशा लोगों को किसी ना किसी एक हिंसा का शिकार होना देखा गया है। यहां तक कि कुछ मामलों में तो शारीरिक, मानसिक के साथ ही यौन उत्पीडन के मामलें भी सामने आये हैं। तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि लेंगिक उत्पीडन की दृष्टि से देखें तो महिलाओं के साथ उत्पीडन के मामलें में भी अमेरिका आगे हैं।

दरअसल कार्यस्थल पर सबसे ज्यादा उत्पीडन के मामलें मानसिक उत्पीड़न के सामने आते हैं। इसे हम साइकोलोजिकल टार्चर भी कह सकते हैं। इसमें सार्वजनिक रुप से बारबार अपमान करना, धमकी देना या ड़राना आदि शामिल है। देखा जाए तो अमेरिकन डिक्शनरी  का 2022 का शब्द गैसलाइटिंग कमोबेश इसी और इशारा करता है। मानसिक उत्पीड़न के और तरीकों में लोगों को दूसरों को सामने नीचा दिखाना, ताने कसना, उसकी कार्यक्षमता पर बार बार प्रश्नचिन्ह लगाना आदि आदि हो सकते हैं। इससे व्यक्ति कुठाग्रस्त तो होता ही है साथ ही डिप्रेशन में जाने या हीनभावना से ग्रसित होने की संभावनाएं अधिक हो जाती है। इसी तरह से शारीरिक उत्पीड़न में फाईल फेंकना, फ़ेंक कर माना, थूकना, रोकना या कुछ इसी तरक के उत्पीड़न के तरीके होते हैं तो यौन उत्पीडन के तरीकों के खुलाशा करने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह से उत्पीड़न के शिकार व्यक्ति के दिमाग पर गंभीर असर साफ दिखाई देने लगता है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी आंकड़ों का विश्लेषण करें तो साफ हो जाता है कि अरब देशों की तुलना में अमेरिका की स्थिति अधिक खराब है। अमेरिका में 34.3 प्रतिशत, अफ्रीका में 25.7 प्रतिशत,यूरोप व मध्य एशिया में 25.5 प्रतिशत, एशिया व पेसिफिक मे 19.2 प्रतिशत और अरब देशों में 13. प्रतिशत लोग कार्यस्थल पर उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें भी शॉफ्ट टारगेट महिलाएं, प्रवासी नागरिक और युवा अधिक होते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की माने तो उत्पीड़न के मामलों में लगातार बढ़ोतरी ही देखी जा रही है। कहा यह भी जा रहा है कि इस तरह का यह पहला सर्वेक्षण है जो श्रम संगठन द्वारा करवाया गया है। यदि कार्यस्थल पर उत्पीड़न के यह हालात है तो इसे सभ्य समाज के लिए किसी भी स्तर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
देखा जाए तो हमें सभ्य कहलाने का हक ही नहीं है। क्योंकि मानवीय संवेदनाएं दूर दूर तक दिखाई ही नहीं देती। हम यह भूल जाते हैं कि हमारे साथ काम करने वाला चाहे पुरुष हो या महिला इसी संसार का प्राणी है। उसमें और हममें कोई भेद नहीं है। भेद है तो केवल यह कि एक सुपरवाइजरी पद पर है तो दूसरा अधीनस्थ। फिर भी मानवता को ध्यान रखना हमारा दायित्व हो ही जाता है। समझाइश के माध्यम से भी किसी को राह पर लाया जा सकता है। केवल जलील करने से ही कुछ प्राप्त नहीं हो जाता। उल्टा देखा जाए तो किसी को जलील करते समय हम हमारी कुंठाओं को ही उजागर करते हैं। फिर कार्य स्थल पर हर पांचवें कार्मिक का उत्पीड़न बेहद चिंतनीय होने के साथ ही कहीं ना कहीं हमारी सोच और समझ को भी उजागर करता है। आखिर हम जा कहां रहे हैं। मानवीय संवेदनशीलता को हमें नकारना नहीं चाहिए। बल्कि एक और हम छोटे बड़े में भेद नहीं करने की बात करते हैं तो दूसरी और यह आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं।
श्रम संगठन के आंकड़ें हमारे सामने हैं। इन आंकड़ों में अतिशयोक्ति से नकारा नहीं जा सकता पर कमोबेश यह आंकड़ें सत्यता की पास अवश्य है। ऐसें में नियोजकों, गैरसरकारी संगठनों और मनौवैज्ञानिकों के साथ ही प्रबंधन का पठ पढ़ाने वाले गुरुओं को आगे आना होगा और इस तरह के मानवता को कलंकित करने वाले हालातों को सुधारने के प्रयास करने ही होंगे। नहीं तो जो आंकड़े सामने हैं उससे तो यही लगता है कि हमारा व्यवहार किसी गुलामी युग से कमतर नहीं हैं। हम समाज को आगे ले जाने के स्थान पर पीछे की और ले जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन जैसे वैश्विक संगठनों को भी अवेयरनेस कार्यक्रम चलाकर हालात सुधारने के ठोस प्रयास करने ही होंगे। नहीं तो आने वाला समय हमें माफ करने वाला नहीं है।