शिशु सुरक्षा जीवन रक्षा

बाल मुकुन्द ओझा

सात नवंबर को देशभर में शिशु सुरक्षा दिवस मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का उद्देश्य शिशुओं की सुरक्षा के बारे में जागरूकता फैलाना और शिशुओं की उचित देखभाल करके उनके जीवन की रक्षा करना है। स्वास्थ्य संबंधी देखभाल ना होने के कारण यह समस्या और भी विकराल होती जा रही है। भारत में इस संदर्भ में कई कार्यक्रमों और योजनाओं को जनहित में लागू करके शिशुओं की मृत्यु दर को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए है।लेकिन जनसंख्या के बढ़ते बोझ व बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव तथा जागरूकता की कमी के कारण शिशुओं की मृत्यु दर में अपेक्षित कमी नहीं आई है।

भारत में हर साल लाखों बच्चे ऐसी बीमारियों के चलते मौत के मुंह में जा रहे हैं, जो निदान योग्य हैं यानी जिनका इलाज मुमकिन है। हमारे देश में सरकारें नवजात शिशुओं को स्वास्थ्य सुरक्षा दे पाने में नाकामयाब और लापरवाह साबित हो रही हैं। नये भारत के निर्माण का सपना हमारा खंडित होता है। देश और समाज की प्रगति, खुशहाली और विकास उसके नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ी होती है। जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं, तो इसका संबंध शिशुओं और माताओं से सबसे पहले होता है। जिस समाज में प्रतिवर्ष लाखों नवजात शिशु अकाल मृत्यु का शिकार हो जाते हैं उसे हम खुशहाल समाज कैसे कहेंगे, यह प्रत्येक देशवासी के लिए चिंतन और मंथन का विषय है। इसे केवल चर्चा, बयान और जाँच के नाम पर नहीं नकारा जा सकता। सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और तथा एनआरएचएम कार्यक्रम के तहत इस दिशा में सशक्त पहल जरूर की है जिसमें यूनीसेफ भी सहयोगी की भूमिका में है लेकिन इस प्रयास में जितने आर्थिक संसाधनों की दरकार है वे पर्याप्त नहीं है इसके लिए जनभागीदारी को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

यूनीसेफ का कहना है कि शिशुओं की अकाल मौत के ज्यादातर मामले निम्न आय वर्ग के परिवारों में होते हैं जहां कुपोषण ,शारीरिक दोष और मलिन वातावरण की समस्या बच्चे के जन्म से पहले ही मौजूद रहती है। ऐसे में अकेले सरकार के लिए इन स्थितियों को सुधारना मुमकिन नहीं है, इसके लिए समाज के हर जिम्मेदार व्यक्ति को सहयोगी की भूमिका में आना होगा।बच्चे के लिए मां का दूध अमृत के समान है लेकिन स्तनपान ना कराने से बच्चे बीमार जल्दी हो जाते हैं, जिसके कारण नवजात शिशु में असमय काल के गाल में समा जाते हैं सही पोषण के अभाव में भी बच्चे दम तोड़ देते हैं। वहीं ग्रामीण इलाकों में प्रशिक्षित दाइयो के अभाव के कारण भी कई प्रकार की समस्याएं जन्म ले लेती है।नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य माता के स्वास्थ्य से जुड़ा होता है इसलिए माँ को गर्भावस्था पूर्व से अपने स्वास्थ्य का विशेष ख्याल रखना चाहिए। महिलाओं के शरीर में में खून की होती है, जिसके लिए गर्भावस्था पूर्व से ही उन्हें आयरन फॉलिक एसिड की गोली का सेवन करना चाहिए.। इसके साथ ही इस दौरान उन्हें आयरन युक्त आहार के सेवन को प्राथमिकता देनी चाहिए। गर्भावस्था के बाद प्रसव पूर्व जांच, टेटनस टीका भी गर्भवती महिला को लेना जरूरी होता है। प्रसव के बाद नवजात शिशुओं के बेहतर स्वास्थ्य के लिए जन्म के 1 घंटे के भीतर स्तनपान, 6 माह तक केवल स्तनपान, कंगारू मदर केयर, शिशुओं के निमोनिया जांच एवं टीका उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है।शिशुओं के अच्छे स्वास्थ्य के लिए उनको बेहतर पोषण का मिलना बहुत जरुरी है।

6 माह बाद से ही शिशुओं को स्तनपान कराने के साथ आवश्यक पौष्टिक भोजन, ऊपरी आहार के रूप में देना चाहिए। आंगनबाड़ी केन्द्रों पर लोगों को शिशुओं के पूरक पौष्टिक आहार की जानकारी नियमित तौर पर सेविकाओं द्वारा दी जाती है। इसके साथ ही केंद्रों में सेविका व एएनएम के द्वारा अपने-अपने पोषक क्षेत्रों के नवजात शिशुओं का नियमित रूप से स्वास्थ्य जांच, टीकाकरण आदि करवाया जाता है। स्वास्थ्य विभाग के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार मां को उचित पोषण न मिलने के कारण बच्चे कमजोर पैदा हो रहे हैं। जन्म के समय बच्चे अपने औसत वजन से बहुत कम के पैदा होते हैं। विभन्न सरकारी और गैर सरकारी स्वास्थ्य सर्वेक्षणों में रेखांकित किया गया है कि शिशु मृत्यु और प्रसव काल में माताओं की मृत्यु के कारण ऐसे हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं को गांव गुवाड़ तक पहुंचाकर हर नागरिक को समय पर सम्यक चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था करनी होगी। साथ ही सरकारी सुविधाएँ बिना भेदभाव और लाग लपेट के हर माता तक पहुँचाने के लिए सरकार और समाज को मिलजुल कर प्रयास करने होंगे। कुपोषण पर नियंत्रण कर गरीब और जरूरतमंद गर्भवती माता को पौष्टिक आहार सुलभ करने की दिशा में तेजी से प्रयास करने होंगे तभी नवजात शिशुओं की मृत्यु पर रोक लगाई जा सकती है।

(लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)