रमेश चंद्र शर्मा ‘ वारिद ‘ एक साहित्यकार और पुराविद का यूं चले जाना……

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल,कोटा
14अगस्त 2022 का वह दिन साहित्य और पुरातत्व की अपूरणीय रिक्तता का दिन था जब साहित्य और पुरातत्व की हस्ती राजस्थान में कोटा शहर के निवासी रमेश चंद्र शर्मा  ‘ वारिद ‘ का अचानक यूं चले जाना सबको स्तbdh गया। यकायक किसी को यकीन नहीं हुआ वे हमारे बीच नहीं हैं। मेरा उनसे परिचय तब हुआ जब वे कोटा के राजकीय संग्रहालय में कार्य करते थे। इकहरे शरीर के मिलनसार व्यक्तित्व के मालिक वारिद जी एक दम मस्त मौला थे। स्वभाव से शांत,सकारात्मक और रचनात्मक सोच। बोलते कम थे,हल्की मुस्कान के साथ स्वागत करते थे। कभी – कभी जब गंभीर नजर आते थे तो लगता था जैसे कुछ सोच रहे हो।
मैने उन्हें साहित्यकार, पुरातत्ववेता, संगीतज्ञ, कवि, कुशल मंच संचालक और लेखक के रूप में देखा – जाना। साहित्यकार और लेखक के रूप में एक समय रहा जब उनकी शोध परक लेख और कविताएं देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं  की सुर्खियां होती थी। विद्या की देवी मां सरस्वती का वरदान था कि लेखन के साथ – साथ वे बेहतरीन कवि हृदय थे और कविता लेखन के साथ कविता पाठ भी पूरी कुशलता से करते थे। श्रंगार  और प्रकृति उनकी कविताओं का प्रिय विषय होते थे।दार्शनिकता बोध लिए उनकी अधिकांश कविताएं छंद मुक्त होती थी। वे विभिन्न कार्यक्रमों की समीक्षा लिखते – लिखते  कुशल समीक्षक बन गए। साहित्यकारों से उनका गहरा अंतर्संबंध था और वे सबके प्रिय थे। साहित्यकारों ने भी उन्हें भरपूर सम्मान दिया। संगीत से उन्हें खास लगाव रहा और तबला वादन में भी वे पूर्णतः पारंगत थे। उन्होंने मध्य प्रदेश की किसी संगीत संस्था से तबला वादन पर मास्टर डिग्री प्राप्त की थी।
पुरातत्व में गहरी रुचि ने उन्हें हाड़ोती की मूर्ति कला का विशेषज्ञ बना दिया। उनके इतिहास व पुरातत्व विषय पर कई लेख चौपासनी- जोधपुर से प्रकाशित ‘परंपरा’ पत्रिका में तथा पिलानी से प्रकाशित पत्रिका ‘मरूभूमि भारती’ में प्रकाशित हुए थे। जब भी समाचार पत्रों को किसी संदर्भ में ऐतिहासिक जानकारी की आवश्यकता होती थी वारिद ही तारणहार बनते थे।
वारिद स्वयं तो साहित्य और पुरातत्व प्रेमी थे ही साथ ही मेरे सहित कई लोगों के प्रेरणा श्रोत बने। इतिहास का अध्येता होने से मैने उनसे काफी कुछ ग्रहण किया। फिरोज अहमद, स्व. रामकुमार, प्रेमजी प्रेम, धननालाल सुमन जैसे कई नाम हैं जो उनसे प्रभावित रहे। मेरे लिए गौरव के पल थे जब मुझे इतिहास विषय में 1996 में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त हुई तब  उन्होंने एक पत्र लिख कर बधाई दी और मेरे लेखन कार्य एवं परिश्रम की प्रशंसा मुक्तकंठ से करी। किसी भी क्षेत्र में अच्छा कार्य करने वालों को प्रोत्साहन देने में भी वे चूकते नहीं थे।
पिता के जीवन और कार्यों का प्रभाव उनके सुपुत्र विजय जोशी पर गहरा पड़ा और वे निरंतर साहित्य साधना में लगे हैं। लेखन,कविता और समीक्षा के गुण उन्हें पिता से विरासत में प्राप्त हुए। बहुमुखी प्रतिभा प्रतिभा के धनी स्व. वारिद का जन्म 15 नवम्बर 1942 को झालावाड़ (राजस्थान) में हुआ। उन्होंने एम.ए. इतिहास की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने शायद कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे इतिहास और पुरातत्व की दिशा में आगे बढ़ेंगे। पर नियति को यही मंजूर था इसीलिए 1965 में प्रारंभ की की गई पुलिस में कनिष्ठ लिपिक के पद पर नोकरी करते हुए तत्कालीन कलेक्टर द्वारा पुरातत्व विभाग झालावाड़ में समायोजित किया गया। सन 1974 में वे राजकीय संग्रहालय झालावाड़ से स्थानांतरित होकर कोटा राजकीय संग्रहालय में आए। जीवन का लम्बा अंतराल इतिहास और पुरातत्व के बीच व्यतीत करने के पश्चात् पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, जयपुर से कार्यालय सहायक पद से 30 नवम्बर 2000 को सेवा निवृत्त हुए। अंतिम समय में वे बीमारी से जकड़ गए और 80 वर्ष की आयु में देवलोक गमन को चले गए।