आत्महत्या क्यों करते हैं लोग

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में हर साल 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं यानी हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति अपनी जान ले लेता है। आत्महत्या पर जारी ग्लोबल डाटा के मुताबिक आत्महत्या करने वालों में 15 से 29 साल के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है।
समय के दूरदर्शी नैनों में युग युगान्तर से चलता हुआ अपना ये समाज चलता रहता है। इसमें अच्छे बुरे लोग आते जाते समय के पहलू है जिसमें एक नजरिया होता हैं। कोई व्यक्ति अधिक बुद्बिशील ओर कोई बुद्बि हीन होता हैं। जिस वजह से उसे अपने से नीचा दिखाने की हर कोशिश की जाती है। जिससे वह बहुत परेशान हो जाता है और वह गलत दिशा की और चला जाता है , उसकी सोच बन जाती हैकि मेरे जैसा कोई गलत व्यक्ति नहीं जिसे इस दुनियां में जीने का कोई अधिकार नहीं। इस सोच के कारण वह आत्महत्या कर मौत को गले लगा लेता हैं।
आजकल पढ़ाई वाले विधार्थी भी एक दूसरे से अंक अधिक लाने की होड़ में लगे रहते है। जिसमें कई विधार्थी बहुत प्रतिभाशाली होते हैं. लेकिन वहा भी उनके साथ कोई न कोई ऐसी स्थिति बन जाती हैं जिससे जो वो चाहते वो नहीं मिल पाता है। ऐसे में उनका ध्यान भटक जाता हैं जिससे उनके दिमाग को ऐसा झटका लगता है की वो अपने आपको उस स्थिति में नहीं रख पाते और उन्हें ओर कोई विकल्प नहीं नजर आता और वो जीवन को समस्या का जंजाल समझ वहीं समाप्त कर देते हैं।आज ये खास तौर से नजर आ रही है। ये कैसी विडंबना झलक रही हैं। जो आज हर सूरज के नये प्रकाश में एक अखबार की सुर्खियां बना हुआ मुख्य मुद्दा है. जिसमें भी देखूं कोई भी उस प्रभु के बनाये नियम कानून अपने दो दिन के जीवन को जीने की कला नहीं जानता सिर्फ द्वेष भाव से ही जीते हैं। कोई सोच समझ कर जीना नहीं चाहता है ये कभी नहीं कहता कि प्रभु ने जीने की कला दी उसमें ढ़लकर चलना है। प्रभु प्रार्थना करना आदि कई क्रर्म करने की वो पुराने रीति रिवाजों को मान कर चले लेकिन कोई नहीं चलना चाहता है उसी का परिणाम है आधुनिकता के खोखले कार्यों में खो गया हैं।जिस तरह ये समाज अपनों के अपने रिश्तों को भूलता जा रहा है।वहीं अपनों से बड़ों के संस्कार जो सिखाते थे। बड़े छोटे का तरह आदर करना चाहिए।और किसे किस तरह बोलना सुनना उनका मान समान करना आदि हर गुण अपने परिवार के मुखिया से मिला करता था। वह सब लुप्त हो गया। क्यूं किस लिए ये भी एक कड़वा सच मानों तो पहले हर घर कथा भागवत आदि ग्रथों का स्वर्ण किया जाता था और उसमें अलग अलग कथाओं का ज्ञान की बातें सिखने को मिलती थी। यही नहीं चौपालों में रामलीला आदि नाटक कहानियां दिखाई जाती थी जिससे नई स्फूर्ति नई ऊर्जा मिला करती थी ।जिससे जीने का रंग भाव समाज संस्कृति का विकास हुआ करता था।
यही नहीं एक बात भी गलत नहीं थी गुरूकुल आदि विधा अध्ययन भी बहुत साफ सुथरा हुआ करता था. शिक्षा स्तर। जीवन जीने की सच्ची कला लेकिन भाग्यवश अब जबसे टीवी मोबाइल आदि चले धीरे धीरे संस्कार हीन होने लगे। हालांकि ये सब ज्ञान का सूचक है। हर तरह से ज्ञान होगया जो हदसे गुजर जाने वाली बात लगने लगी । जो कि अच्छी बात आज कोई भी नहीं जानना समझना नहीं चाहता. सिर्फ अपनी जिद्द् पर चलकर गलत कदम उठाने की और तत्पर रहता है।. इसी का परिणाम हैं।जो कि किसी को अच्छा बुरा समझने की सोच नहीं रही। क्या आत्महत्या ही विकल्प बन गया है।